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आय, स्‍वास्‍थ्‍य और प्रजनन क्षमता – समाभिरूपता की उलझनें

संवाददाता : देश का आर्थिक प्रदर्शन समग्र रूप से उल्‍लेखनीय रहा है। एक संघ के रूप में भारत की सफलता हर राज्‍य की प्रगति पर निर्भर करती है। कोई राज्‍य अपना काम सही ढंग से कर रहा है, इसका मूल्‍यांकन करने के लिए उचित पैमाना क्‍या है? इसका एक तरीका यह है कि हम यह देखें कि किसी राज्‍य विशेष ने एक निश्चित समय में कितना बेहतर काम किया है। इसके लिए हम संकेतकों के दो विस्‍तृत सेटों पर विचार कर सकते हैं। ये संकेतक हैं – आर्थिक संकेतक जैसे आय और खपत तथा स्‍वास्‍थ्‍य/जनसांख्यिकी संकेतक जैसे- नवजात शिशु मृत्‍यु दर जीवन प्रत्‍याशा और कुल प्रजनन दर। इन संकेतकों का विशलेषण 1980 में शुरू हुआ। जब हिंदू वृद्धि दर से पूर्व के युग में संरचनात्‍मक विराम आया।

इन संकेतकों के स्‍तर में अगर परिवर्तन को ही देखें तो ये हमें पूरी तस्‍वीर नहीं दर्शाते हैं। संबद्ध आकलन के लिए कोई पैमाना नहीं है। आर्थिक सिद्धांत हमें लाभदायक तरीका उपलब्‍ध कराता है। जो समाभिरूपता है (या बिना शर्त समाभिरूपता) है। समाभिरूपता का अर्थ है कि किसी राज्‍य ने अपना प्रदर्शन कम स्‍तर पर शुरू किया और उसका परिणाम महत्‍वपूर्ण रहा। इसे आय या खपत का स्‍तर कह सकते हैं जो समय के अनुसार अपेक्षाकृत रूप से तेजी से बढ़ना चाहिए और इसके प्रदर्शन में सुधार होना चाहिए ताकि यह बेहतर शुरूआत बिन्‍दू वाले राज्‍यों के बराबर पहुंच सके।

वर्ष 1983 और 2014 के मध्‍य की अवधि में प्रतिव्‍यक्ति वास्‍तविक जीएसडीपी (चित्र 1 में दर्शाया गया है) का अध्‍ययन करते हुए यह स्‍पष्‍ट है कि इन स्‍तरों में हुई स्‍पष्‍ट बढ़ौतरी व्‍यापक पैमाने पर हुए सुधार का संकेत है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 1984 और 2000 के मध्‍य सबसे गरीब राज्‍य (त्रिपुरा में जहां 1984 में प्रतिव्‍यक्ति आय 11 हजार 537 रुपए थी वह वर्ष 2014 में बढ़कर 64 हजार 712 रुपए हो गई) की प्रतिव्‍यक्ति जीडीपी में 5.6 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। औसत राज्‍य हिमाचल प्रदेश में आय के स्‍तर में 4.3 गुणा वृद्धि हुई है। ज‍ब वास्‍तविक प्रतिव्‍यक्ति जीडीपी में समाभिरूपता का पिछले दशक (2010-14) का अध्‍ययन किया गया तो ये पाया गया कि जहां चीन में विभिन्‍न प्रां‍तों और विश्‍व के अन्‍य देशों में आय समाभिरूपता भारत के मुकाबले विषमता है लेकिन जब वास्‍तविक प्रतिव्‍यक्ति खपत की समाभिरूपता की भारत के राज्‍यों में अध्‍ययन किया गया तो समाभिरूपता की एक ही प्रवृत्ति पाई गई। औसत रूप से तेजी से बढ़ोतरी के बावजूद भारत के राज्‍यों में क्षेत्रीय असमानता बढ़ने के संकेत देखे गए हैं। यह स्थिति उलझन भरी है क्‍योंकि भारत में अंतर्निहित ताकतें समानता के पक्ष में है। उदाहरण के लिए वस्‍तुओं और व्‍यक्तियों की बढ़ती हुई गतिविधियां इसकी मजबूत साक्ष्‍य हैं। ऐसा पिछले दशक (1994-2004) के मामले में नही देखा गया है। हम चीन, भारत और विश्‍व  की आय में सभी विभिन्‍नताओं/कमजोर समाभिरूपता को देखते हैं।

समाभिरूपता को स्‍पष्‍ट रूप से चित्र 2 में देखा जा सकता है। समाभिरूपता का आकलन करने के लिए हमें नीचे गिरती हुई लाइन को देखना चाहिए। इसका अर्थ है कि वे देश/प्रांत/राज्‍य जिन्‍होंने शुरूआत कमजोर की उन्‍होंने तेजी से विकास किया और अधिक विकसित देशों/राज्‍यों के साथ अपने अंतर को कम किया। भारत में इसके विपरीत हो रहा है।

छली तीन समयावधियों 1983-1993, 1993-2004 और 2004-2011 के दौरान भारत में खपत भिन्‍नता का समान रुख देखा गया। इससे यह पता चलता है कि समय के साथ भारत में क्षेत्रीय आय/खपत असमानता में कमी नहीं आ रही है, जबकि विश्‍व के अन्‍य देशों और चीन में इस तरह की असमानता लगातार कम हो रही है। भारतीय विरोधाभास निसंदेह बेहद हैरान कर देने वाला है: उत्‍पादन की समाभिरूपता के लिए मजबूत अंतरराष्‍ट्रीय सीमाएं अधिक सहायक हैं, जबकि भारत की असुरक्षित सीमाओं से स्‍थानिक असमानता बढ़ रही है।

आय और खपत में क्षेत्रीय बिखराव को देखने के लिए एक संभावित परिकल्‍पना यह है कि शासन की पकड़ से कैचअप प्रक्रिया बढ़ती है लेकिन ऐसी पकड़ श्रम और पूंजीगत गति भी असमानताओं को बढ़ावा दे सकती है। ऐसे ट्रेप मौजूद है कि प्रतिस्‍पर्धी संघवाद पीछे चल रहे राज्‍यों को परिवर्तन करने के लिए बल दे रहा है। यह एक खुला प्रसंग बना हुआ है।

इसके विपरीत स्‍वास्‍थ्‍य के मामले में 2000 के दशकों में भिन्‍नता के मजबूत साक्ष्‍य मौजूद हैं। लेकिन एक अंतरराष्‍ट्रीय विरोधाभास भी है जो प्रभावित कर रहा है। जीवन के अनुमान के संबंध में भारत के राज्‍य आय के अपने स्‍तरों के नजदीक है लेकिन शिशु मृत्‍यु दर के मामले में यह सत्‍य नहीं है। जो यह दर्शाता है कि माता और बच्‍चे को (पिछले वर्ष के सर्वेक्षण में भी विचार किया गया।) स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की कमजोर आपूर्ति का दंश झेलना पड़ा है।

अंतरराष्‍ट्रीय प्रजनन दर में अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर हम वास्‍तविक रूप से खड़े हैं (जिसे कुल प्रजनन दर का उपयोग करते हुए मापा गया है। जहां हम यह पाते हैं कि विकास के स्‍तरों की तुलना में भारतीय राज्‍यों में दुनिया के अन्‍य देशों की तुलना में प्रजनन क्षमता के कम स्‍तर मौजूद है। प्रजनन क्षमता में इन अनावश्‍यक भारी गिरावटों से भारत के जनसांख्यिकी लाभांश पर मजबूत और सकारात्‍मक प्रभाव पड़ेगा।

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