अजीत सिन्हा की रिपोर्ट
नई दिल्ली: कांग्रेस प्रवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि मैं आपके समक्ष एक बहुत ही गंभीर उदाहरण लाना चाहता हूं, झूठ बोलने का, असत्य बोलने का, देश को और देश के हर नागरिक को बरगलाने और बहकाने का और इससे उच्चतम न्यायालय को भी वंचित नहीं रखा, इस प्रकार के गलत कारनामों से। ये इस केन्द्र सरकार ने किया है और जो इस केन्द्र सरकार ने किया है, वो भर्त्सना योग्य है, वो बिल्कुल असत्य है और बिना बातचीत के, बिना किसी विधायिका के कानून के किसी रुप से, पब्लिक डोमेन में वार्तालाप किए बिना उच्चतम न्यायालय में एक एफिडेविट, एक हलफनामा फाइल किया है कि हमने प्री-लेजिस्लेटिव कंसल्टेशन पूरी तरह से किया। हमने विधायिका के कानून के पहले विचारों का आदान-प्रदान किया, विचार-विमर्श किया, जो कि बहुत गंभीर असत्य, झूठ है।
मैं इसके आपको दो-चार उदाहरण संक्षेप में देना चाहता हूं।
एक तो है कि 11 दिसंबर, 2020 को आरटीआई के अंदर याचिका दी गई और एक दूसरी याचिका दी गई, 15 दिसंबर, 2020 को यानि चार दिन बाद। इन दोनों याचिकाओं में इन तीन गलत कानूनों के विषय में जानकारी मांगी गयी कि बताईए कि आपने किनसे विचार-विमर्श किया, कब किया, कौन सा दस्तावेज भेजा, उसका जवाब क्या आया और आपकी मीटिंग्स कब हुई, क्योंकि आप जानते हैं, ऑर्डिनेंस जून का है और कानून सितंबर का है या तो जून के पहले कब किया आपने ये आदान-प्रदान और या सितंबर के पहले कब किया? ये प्रश्न पूछा मिस अंजली भारद्वाज ने, दो अलग-अलग याचिकाओं द्वारा, 11 दिसंबर और 15 दिसंबर को। दोनों के जवाब 22 दिसंबर को इनफोर्मेशन ऑफिस से आ गए। मैं आपको कोट कर दूं, अंग्रेजी में जवाब है – “this CPIO does not hold any record in this matter.” यानि जितने भी व्यापक प्रश्न है कि किससे किया, कब किया, कैसे किया, कौन सा कागज है, कौन सा नोटिस भेजा, कब मिले, कब मीटिंग हुई, मिनट्स कहाँ हैं, कोई रिकॉर्ड नहीं है, कोई दस्तावेज नहीं है, कोई प्रमाण नहीं है। इसके बावजूद 11 जनवरी, आज से दो दिन पहले, आज 13 जनवरी है, उच्चतम न्यायालय जैसी संस्था में एक हलफनामा दिया जाता है, जिसमें 5-6 पैरा ग्राफ हैं, जो कहते हैं कि हम इस हलफनामे को मुख्य रुप से इसलिए पेश कर रहे हैं, क्योंकि हम वो गलतफहमी, जो फैलाई गई है कि हमने कोई भी आदान-प्रदान और विचार-विमर्श नहीं किया, ये झूठ है। हमने किया है विचार-विमर्श और हम इसलिए हलफनामा डाल रहे हैं।
ये आपको उच्चतम न्यायालय के हलफनामा के पैरा 2, 3, 10, 12, 13 और 14 में मिलेगा। ये सभी पैरा का विवरण मेरे नोट में है। आपको वो अभी तुरंत 10 मिनट के अंदर ईमेल पर मिल जाएगा, अभी मिल रहा होगा। मैंने अनुरोध कर दिया है हमारे विभाग से कि आपको भेज दिया जाए। इसी पैरा ग्राफ में, जो हलफनामा है, ये भी कहा गया कि जो विचार-विमर्श और आदान-प्रदान की हम बात कर रहे हैं, पैरा नंबर मैंने दिए हैं आपको अभी, ये क्या है, ये मजाकिया है। ये अगर इतना दुर्भाग्यपूर्ण नहीं होता तो मजाकिया होता। एक पैरा में कहते हैं कि हमने वर्ष 2000 में गुरु कमेटी बनाई, वो हमारा विधायिका का प्रि कंसल्टेशन है। एक में कहते हैं कि हमने मॉडल एक्ट बनाए 2003 में और 2017 में। बिल्कुल सही है, मॉडल एक्ट बनाना ये प्री-कंसल्टेशन होता है 2020 के ऑर्डिनेंस के विषय में। मैं नहीं समझता कि किंडरगार्टन का कोई कानून का या समझदारी का विद्यार्थी भी ये सोचेगा और वो मॉडल एक्ट जो 2003 और 2017 के, वो एक चीज और प्रमाणित करते हैं। वो प्रमाणित करते हैं कि एक सिर्फ एक अखिल भारतीय स्तर का आम कानून केन्द्र द्वारा इस विषय पर नहीं किया जा सकता। उसके पास अधिकार क्षेत्र नहीं है, इसलिए मॉडल कानून में कहा गया कि प्रादेशिक सरकार को ये विकल्प है, ये ऑप्शन है कि वो चाहें या ना चाहें, ऐसे कानून को अपनाना। जबकि इस बार, जो तीन कानून दिए गए हैं, उसमें ऐसा कोई भी विकल्प या ऑप्शन नहीं दिया गया है।अंत में एफिडेविट कहता है कि ये हमने बहुत एलोब्रेट कंसल्टेशन किया कि लोग इसके विरुद्ध कह रहे हैं, वो झूठ बोल रहे हैं। ये मजाक की बात है क्योंकि झूठ तो आप हलफनामे में देख रहे हैं। बल्कि जो लोग कह रहे हैं, वो प्रमाणित हो गया है इस हलफनामे से और ये प्रमाणित हो गया है उस आरटीआई के जवाब से कि हमारे पास एक कागज के एक पन्ने का एक पैराग्राफ नहीं है, जो दिखाता है कि ऐसा विचार-विमर्श हुआ। इसका मतलब है कि मिथ्या प्रचार पर आपकी कोई सीमा नहीं है। देश, स्टेक होल्डर, आम आदमी, जनता जनार्दन, आप उच्चतम न्यायालय को भी नहीं छोड़ते। उसके समक्ष अवमानना है, गंभीर अवमानना है। उसके समक्ष गलत प्रोजेक्शन है, गलत तथ्य हैं और देश और आम आदमी के समक्ष भी वही बात है।
इन सबके बाद आप जानते हैं कि जो ऑर्डिनेंस आया जून में, वो सितंबर में, जिसको हम लोकतंत्र का मंदिर मानते हैं, वहाँ पर एक मिनट के भी विचार-विमर्श के बिना लोगों के मुँह में, लोगों के जीवन में, लोगों की आवाजों को तोड़ते हुए, रोकते हुए, खत्म करते हुए ये पारित किए गए। इसके अलावा मैं अपनी बात का अंत करुंगा एक बात और जोड़कर। ये भी अब करीब-करीब प्रमाणित हो गया है कि इस सरकार के अंदर भी किसी को मालूम नहीं था कि इस प्रकार का कानून अचानक आने वाला है जून में और बाद में कानून बनकर सितंबर में यानि ऑर्डिनेंस जून में और बाद में कानून। आम आदमी और पब्लिक डोमेन की क्या बात करते हैं, सरकार में भी लगता है कि किसी शंहशाह ने एक दिन किसी तुगलकी फरमान के आधार पर इस जून के अध्यादेश को पास कर दिया। इसका प्रमाण ये है। 2003 देखा आपने, 2017 देखा आपने और पिछले वर्ष भी कमेटी और समितियों की रिपोर्ट देखी आपने, तीन देख ली आपने। इन तीनों में क्या था – ये एक समझ थी कि अधिकार क्षेत्र शायद केन्द्र सरकार का कृषि के मामले में इस प्रकार का अखिल भारतीय बाध्य कानून पास करने का संवैधानिक अधिकार क्षेत्र ही नहीं है। इसीलिए बार-बार 2003 में, 2017 में समितियों द्वारा मॉडल एक्ट्स प्रस्तावित किए गए, जिनका मैंने विवरण किया अपने नोट में और अभी बोला मौखिक रुप से। इन मॉडल एक्ट का मुख्य उद्देश्य था कि हम ये आपको प्रस्तावित कर रहे हैं। आप अमुक प्रदेश हैं, आप सोचिए कि अगर आप इसे अडोप्ट करना चाहते हैं, नहीं करना चाहते हैं, नहीं करिए। एक दूसरा प्रदेश है, उसको भी ऐसा विकल्प दिया गया है। ये हुई बात 2019 तक की। 2020 में मई तक माननीय वित्त मंत्री ने प्रेस वार्ता ली हैं कृषकों के ऐसे कानूनों के विषय में। एक प्रेस वार्ता है 15 मई, 2020 की। जून में आप जानते हैं अध्यादेश आ गया था, ऑर्डिनेंस। एक लेशमात्र भी संकेत नहीं है कि इस प्रकार के अखिल भारतीय केन्द्र सरकार के तीन कानून आने वाले हैं कि हमें वाजपेयी जी ने या किसी और ने मॉडल एक्ट बनाए थे 2017 वाले, वो नहीं आ रहे हैं या उनको हम भूल गए हैं, कहीं भी ये संकेत तक नहीं है। अचानक इसलिए सरकार के अंदर भी उतनी ही अचानक बात है, जितनी सरकार के बाहर। बिना किसी कंसल्टेशन के और आप उच्चतम न्यायालय के ठीक 180 डिग्री विपरीत कह रहे हैं। इससे ज्यादा भर्त्सना योग्य कंडक्ट कैसे हो सकता है?