अजीत सिन्हा की रिपोर्ट
फरीदाबाद : राजस्थान के बूंदी निवासी 56 वर्षीय बद्रीलाल को तकरीबन चार महीने पहले पैरों में अचानक घाव होने लगे। देखते ही देखते ये घाव बढ़ते गए और उन्होंने स्थानीय अस्पताल में डॉक्टरों को कई बार दिखाया। पैरों के एक्स-रे के बाद एक चौंकाने वाला सच सामने आया कि बद्री लाल के पूरे पैरों में सुईयां हैं। यह देखकर डॉक्टरों ने उसके पूरे शरीर का एक्स-रे कराने की सलाह दी। एक्स-रे की रिपोर्ट से शरीर के अन्य भागों में भी कीलें व सुईयां मौजूद होने की पुष्टि हुई।
रेलवे में पानी सप्लाई का काम करने वाले बद्री लाल का कहना है कि उनके शरीर में ये सुईयां कहां से आईं उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। डायबिटीज होने के कारण उनके पैरों के घाव दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे थे। बद्री को अस्पताल के डॉक्टरों ने मुंबई के नामी-गिरामी अस्पताल में जाने की सलाह दी। वहां के डॉक्टरों ने कुछ दिन भर्ती करने बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी। डॉक्टरों का कहना था कि उनकी यह सुईयां शरीर की ऐसी कोशिकाओं तक पहुंची हुई थीं, जिन्हें निकालने से उनकी जान जा सकती थी और उन्हें वापिस दिल्ली के सेंट्रल अस्पताल रैफर कर दिया। परंतु वहां के डॉक्टरों ने भी जान का जोखिम देखते हुए उनका ऑपरेशन करने से मना कर दिया। इन चार महीनों के दौरान बद्रीलाल की हालत दिन प्रतिदिन गंभीर होने लगी। इस दौरान उनका 30 किलो वजन भी कम हो गया। कीलें व सुईयां उनके गले और सांस की नली तक पहुंच चुकी थीं। बद्री लाल को 24 जून को अस्पताल में भर्ती किया गया। सीटी स्कैन और एंडोस्कोपी के दौरान उनके शरीर में 150 से भी अधिक कीलें होने की पुष्टि हुई। एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसे का अस्पताल के ईएनटी विभाग के डायरेक्टर डॉ. ललित मोहन पाराशर ने बताया कि बद्री के शरीर में इतनी सारी कीलें देखकर हम हैरान थे। हमारे सामने चुनौती थी कि किस तरह इन कीलों, सुईयों व पिनों को उनके शरीर से निकाला जाए, क्योंकि कुछ कीलों ने उनके शरीर की मुख्य नाडिय़ों जैसे श्वांस नली, खाने की नली, ईसोफेगस, दिमाग को खून पहुंचाने वाली मुख्य नाड़ी दकैरोटिड आर्टरी) को भेदा हुआ था। हमने डॉक्टरों की एक टीम बनाई जिसमें ईएनटी विभाग, हृदय विभाग, जनरल सर्जन व एनेस्थीसिस्ट शामिल थे।
6 घंटे तक चली इस सर्जरी के दौरान हमने बद्री के गले की गहन कोशिकाओं व नलियों से 90 कीलें व सुईयां निकालीं। इस दौरान हमें कुछ विशेष बातों का ख्याल रखना पड़ा। सिर को खून पहुंचाने वाली मुख्य नाड़ी व बोलने वाली नाड़ी में फंसी हुई कीलें व सुईयां मरीज को पूरी जिंदगी के लिए अपंग बना सकती थीं। एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेका अस्पताल के कार्डियोवस्कुलर सर्जन डॉ. आदिल रिज़वी ने बताया कि हमारे गले का हिस्सा बहुत ही जटिल होता है जिसमें कई प्रकार की नसें पूरे शरीर का संपर्क दिमाग से जोड़ती हैं। इन नसों में किसी भी प्रकार की रुकावट होने पर मरीज की तुरंत मृत्यु हो सकती है। हमें इन नसों की बिना आघात पहुंचाए, कीलों व सुईयों को बाहर निकालना था। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती मरीज को बेहोश करने की थी। ट्रैक्योस्टोमी तकनीक का सहारा लेकर मरीज को बेहोश किया गया और एक-एक करके कीलों व सुईयों को बाहर निकाला गया। ईएनटी विभाग के कंसलटेंट डॉ. स्वपनिल ब्रजपुरिया ने बताया कि मरीज के शरीर में ये कीलें व सुईयां 6 महीने से भी अधिक समय से मौजूद थीं, जिसके कारण कुछ कीलों में जंग भी लगी हुई थी। मरीज की हालत नाजुक थी, क्योंकि खाने की नली में कीलें व सुईयां होने के कारण वह लंबे समय से खाना भी नहीं खा पा रहा था। डायबिटिक होने के कारण इंफेक्शन का खतरा भी दोगुना हो गया था। एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेका अस्पताल के चेयरमैन एवं मैनेजिंग डायरेक्टर डॉ.एन के पांडे का कहना है कि हमारे अस्पताल में अक्सर चुनौतीपूर्ण केसिस आते रहते हैं, लेकिन इस तरह का मामला पहली बार सामने आया है, जिसमें विभिन्न अस्पतालों के डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे, लेकिन हमारे अस्पताल के डॉक्टरों ने इस चुनौती को स्वीकार किया और एक टीम बनाकर इस केस पर गहन अध्ययन करने के बाद सर्जरी की और इसमें सफलता भी हासिल की। भारत में इस प्रकार की सर्जरी पहली बार हुई है और इस सर्जरी के लिए अस्पताल का नाम रिप्लेस बिलीव इट और नॉट और लिम्का बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में दर्ज कराने के लिए केस हिस्ट्री भी भेजी जाएगी। बद्रीलाल के पुत्र राजेंद्र मीणा ने बताया कि मेरे पिताजी को 10 महीने से परेशानी हो रही थी, लेकिन कारण पता नहीं होने के कारण हम इलाज कराने में असमर्थ थे। पिछले चार महीनों में उनकी पीड़ा इतनी बढ़ गई कि वह खाना भी नहीं खा पा रहे थे और बोलने में भी तकलीफ हो रही थी। ऑपरेशन के बाद उनकी तकलीफ कम हो गई है। मैं अस्पताल के डॉक्टरों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं कि उन्होने मेरे पिता की जान बचाई है।
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