अजीत सिन्हा की रिपोर्ट
चंडीगढ़:सांसद दीपेंद्र हुड्डा ने आज संसद में किसान आंदोलन के दौरान किसान संगठनों और सरकार के बीच हुए समझौते को लागू करने की मांग उठाते हुए सरकार से सीधा सवाल किया कि वो किसानों को एमएसपी गारंटी कब तक लागू करेगी। इस पर जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि कमेटी इस पर विचार कर रही है। जिस पर सांसद दीपेंद्र हुड्डा ने कहा कि जिस कमेटी में किसान ही नहीं, उस पर किसान कैसे विश्वास करें। एमएसपी पर सरकार द्वारा गठित कमिटी में सदस्य वो हैं जो 3 कृषि कानूनों के सार्वजनिक रूप से समर्थक थे और चेयरमैन वो जो ख़ुद 3 कृषि कानून बनाने वाले थे और अब एक बहुराष्ट्रीय कंपनी (MNC) में कार्यरत हैं। दीपेन्द्र हुड्डा ने कहा कि एमएसपी गारंटी के लिए विचार में कितना समय और लगेगा? उन्होंने मांग करी कि किसान आंदोलन के समय सरकार व किसान संगठनों के बीच हुई सहमति के मुताबिक एमएसपी गारंटी लागू हो और किसानों पर दर्ज मुकदमों को तत्काल वापस लिया जाए।
दीपेंद्र हुड्डा ने किसानों को एमएसपी गारंटी और किसान आंदोलन के दौरान आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस लिए जाने पर सवाल पूछा था। सरकार ने इसका कोई ठोस जवाब देने की बजाय ढुलमुल रवैया अपनाया और जवाब देने से बचती नजर आयी। पूरक सवाल पूछते हुए दीपेंद्र हुड्डा ने कहा कि एमएसपी को लेकर देश में बहुत बड़ा आंदोलन हुआ और 750 किसानों की जान कुर्बान हुई। 9 दिसंबर 2021 को आंदोलनकारी किसानों व सरकार के बीच समझौता हुआ था। जिसके बाद सरकार ने एक कमेटी बनाई। लेकिन सभी किसान संगठनों ने इस कमेटी का बहिष्कार कर दिया, क्योंकि, सरकार द्वारा गठित कमेटी में ज्यादातर सदस्य वही लोग हैं जो सार्वजनिक रूप से रद्द हो चुके तीन कानूनों के हक में थे और किसान आंदोलन के खिलाफ थे। उन्होंने कहा कि किसानों के लिये बनी जिस कमेटी में किसान ही नहीं उसका क्या औचित्य है। सरकार द्वारा गठित की गयी एमएसपी कमेटी में किसानों को छोड़कर बाकी सब हैं।
उन्होंने आगे कहा कि जिन मांगों पर सरकार और किसान संगठनों के बीच सहमति बनी थी उनको पूरा करने में सरकार कोई भी ढिलाई न बरते और जल्द से जल्द समझौते के अनुसार उन्हें लागू करे। दीपेंद्र हुड्डा ने यह भी कहा कि इस शांतिपूर्ण किसान आंदोलन से एक बात तो सरकार की समझ में आ ही गयी होगी कि देश का किसान जब ठान लेता है तो फिर वो न रुकता है, न झुकता है। एक साल से भी ज्यादा समय तक चले किसान आंदोलन में अन्नदाताओं ने सर्दी, गर्मी और बरसात में खुले आसमान के नीचे रातें गुजारी, तमाम सरकारी प्रताड़ना और अपमान सहे। धरनों पर उनके साथियों की लाशें एक के बाद एक उठती रहीं, लेकिन वो विचलित नहीं हुए और शांति व अनुशासन के मार्ग को नहीं छोड़ा। अंततः सरकार को झुकना पड़ा और तीनों कृषि कानून रद्द करने पड़े।
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