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लाइव वीडियो: आज के ही दिन 50 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री,श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत की।

अजीत सिन्हा की रिपोर्ट
नई दिल्ली: कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि साथियों, आज की प्रेस वार्ता का विषय आपको असामान्य लगता होगा क्योंकि इसका सीधा ताल्लुकात हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था से नहीं दिखाई देगा, फिर भी मैं समझता हूं आज का विषय बहुत महत्वपूर्ण है आज की राजनीति के लिए और अर्थव्यवस्था के लिए भी। 4 दिन पहले, 27 मार्च को हमने 50 वीं सालगिरह मनाई थी ‘चिपको आंदोलन’ की। 27 मार्च, 1973 को गोपेश्वर के पास मंडल गांव, आज के उत्तराखंड में भारी संख्या में महिलाओं ने चिपको आंदोलन की शुरुआत की थी। आज हम एक उत्कृष्ट महिला गौरा देवी को याद करते हैं, जिन्होंने प्रेरणा दी सभी को और चिपको आंदोलन शुरू हुआ और मैं समझता हूं हमारे पर्यावरण के इतिहास में ये एक मील का पत्थर साबित हुआ, क्योंकि चिपको आंदोलन से जो जन-जागृति पैदा हुई, वन संरक्षण के मामले में, तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा खुद गए। वो तो पहाड़ी इलाके से आते थे, वो खुद गए गोपेश्वर, बातचीत हुई और जो लोगों में एक भय था, खासतौर से पहाड़ी इलाकों में, गढ़वाल के पहाड़ी इलाकों में कि फॉरेस्ट कॉन्ट्रैक्टर आएंगे और सारे हमारे जंगल का विनाश होगा। उस चिपको आंदोलन की वजह से उसमें रुकावट आई और नए कानून बने और सरकार का रवैया बहुत भारी तरीके से बदला।

1 अप्रैल, 2023, आज हम 50 वीं सालगिरह मनाते हैं, ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की शुरुआत के बाद। आज के ही दिन 50 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री,श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत की। इसकी शुरुआत उत्तराखंड में हुई, कॉर्बेट नेशनल पार्क में इसका उद्घाटन हुआ। हालांकि इंदिरा गांधी कैमरा जीवी नहीं थीं, वो कॉर्बेट नहीं गईं और प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत, उसका उद्घाटन तब के चेयरमैन ऑफ दी इंडियन बोर्ड ऑन वाइल्ड लाइफ, डॉ कर्म सिंह ने किया। जब टाइगर प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई, 9 ऐसे हमारे देश में टाइगर रिजर्व चुने गए, उत्तर भारत में कॉर्बेट और रणथंबोर, मध्य भारत में मेलघाट और कान्हा, दक्षिण भारत में बांदीपुर नेशनल पार्क, पूर्वी भारत में सिमिलीपाल, सुंदरबन और पलामू और उत्तर पूर्वी भारत में मानस। 9 ऐसे टाइगर रिजर्व चुने गए, जहाँ ये कार्यक्रम लागू किया गया।

आज 53 टाइगर रिजर्व हुए हैं, हमारे देश में। हमारे देश का सबसे सफल वन्यजीव संरक्षण कार्यक्रम अगर ये एक मिसाल है, वो प्रोजेक्ट टाइगर है और आज 53 टाइगर रिजर्व हैं, सारे देश में हैं, अलग-अलग राज्यों में हैं, 19-20 राज्यों में हैं और जब प्रोजेक्ट टाइगर के लिए प्रधानमंत्री ने अपना संदेशा भेजा, 1 अप्रैल, 1973 को उन्होंने ये कहा था कि जब हम बाघ के संरक्षण के लिए ये परियोजना शुरू कर रहे हैं, ना केवल बाघों का संरक्षण होगा, पर हमारे जंगलों का भी संरक्षण होगा। हमें जंगल सुरक्षित रखने के लिए बाघों को सुरक्षित रखना है और बाघों को सुरक्षित रखने के लिए हमें जंगल को सुरक्षित रखना है। इन दोनों के बीच में एक गहरा ताल्लुक है।आज देखिए, उस प्रोजेक्ट टाइगर के कारण जो हमारे 53 प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व हैं, वो इलाका हमारे घने जंगल हैं, उसका एक तिहाई अंग है। एक तिहाई हमारे जो घने जंगल का एरिया है, हमारे देशभर में, वो इन 53 प्रोजेक्ट टाइगर के रिजर्व के इलाके में है। तो मैं समझता हूं, ना केवल एक प्राणी का संरक्षण हुआ, बल्कि हमारे जंगलों के लिए, हमारे वन इलाकों के लिए भी ये बहुत महत्वपूर्ण कदम निकला। आज इसका राजनीतिक महत्व ये है, इसका सामाजिक महत्व ये है, इसका आर्थिक महत्व ये है कि हमारे सारे कानून जो हैं, जो बनाए गए थे, वो खतरे में हैं। कुछ महीने पहले आपको याद होगा दो वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट है, वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972, उसमें संशोधन लाया गया। कांग्रेस पार्टी ने उसका विरोध किया, स्टैंडिंग कमेटी, जिसका अध्यक्ष मैं हूं, हम लोगों ने उसका विरोध किया, क्योंकि उस संशोधन से हाथियों के व्यापार पर जो अंकुश लगाया गया था, उसका दरवाजा खोला जा रहा था। जब हमारी हाथी की डॉक्यूमेंट्री को ऑस्कर मिलता है, हम तालियां बजाते हैं, वाह-वाह कहते हैं, पर जो हकीकत है हाथियों को लेकर, हमारे हाथी को 2010 में नेशनल हेरिटेज एनिमल का दर्जा दिया गया था। जो खतरे हैं इस कानून के संशोधन से, दोनों सदनों में पारित हुआ है।जो हाथियों में व्यापार हुआ करता था, जिसमें प्रतिबंध लगाया गया था, उसके दरवाजे खोले गए हैं। सरकार को अधिकार दिया गया है कि वो तय कर सकते हैं किन हालात में हाथियों के व्यापार हो सकते हैं और अभी-अभी कुछ ही दिन पहले, दो दिन पहले आप जानते हैं दोनों सदनों में, लोकसभा में और राज्यसभा में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में संशोधन लाने के प्रस्ताव सरकार ने पेश किए, वो बिल उन्होंने पेश किए लोकसभा में। वो सेलेक्ट कमेटी को जाएगा, वो स्थाई समिति को नहीं भेजा जा रहा है, क्योंकि स्थाई समिति का अध्यक्ष मैं हूं, कांग्रेस के एमपी हैं। सेलेक्ट कमेटी को इसलिए भेजा जा रहा है, क्योंकि उसका अध्यक्ष बीजेपी का हो सकता है और जो उनको कहा जाएगा, वो रिपोर्ट लिखेंगे। तो जो 50 साल में उपलब्धि हुई है हमारे देश में जंगलों को बचाने के लिए, हमारे वन इलाकों को बचाने के लिए, चिपको आंदोलन की वजह से, प्रोजेक्ट टाइगर की वजह से, वो आज सब खतरे में है। मैं आपको एक और बात याद दिलाना चाहता हूं कि एक संवैधानिक संस्था है, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, नेशनल कमीशन फॉर शेड्यूल ट्राइब, 26 सितंबर, 2022 को इसके अध्यक्ष हर्ष चौहान, ये मोदी सरकार ने इनको नियुक्त किया है।हर्ष चौहान हैं, जो राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हैं और उन्होंने चार पन्ने का खत लिखा है पर्यावरण और वन मंत्री को और उसकी कॉपी मैं आपको उपलब्ध करा देता हूं और इसमें उन्होंने बिल्कुल साफ कहा है कि जो संशोधन ला रहे हैं आप अधिनियमों में, जो संशोधन ला रहे हैं आप नियमों में, रूल्स में, वो आदिवासियों के हित में नहीं हैं, जो जंगल में रहते हैं, उनके हित में नहीं है और जो 2006 में पार्लियामेंट में वन अधिकार अधिनियम पारित किया गया था, वो उसके खिलाफ जाता है। ये कांग्रेस पार्टी नहीं कह रही है, हम भी यही कह रहे हैं और हमारे अलावा सरकार के ही नियुक्त किए गए अध्यक्ष, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष पर्यावरण मंत्री को लिखते हैं कि जो आप अधिनियम में संशोधन करेंगे, जो आप नियमों में संशोधन कर रहे हैं, वो सही नहीं हैं, आदिवासियों के हित में नहीं हैं और आदिवासी के जो संवैधानिक अधिकार हैं, जो कानूनी अधिकार हैं, उसको छीनता है।तो आज खुशी का दिन है और चिंता का भी दिन है। खुशी का दिन है कि हम चिपको आंदोलन की 50 वीं सालगिरह मना रहे हैं। हम प्रोजेक्ट टाइगर की 50 वीं सालगिरह मना रहे हैं, जिसकी वजह से जंगल बचे हैं, प्राणी बचे हैं, बाघ ही एकमात्र मिसाल नहीं है, जो इंदिरा गांधी जी के कार्यकाल में प्राणी संरक्षण की परियोजना की शुरुआत की गई थी, बाघ के पहले जनवरी, 1972 में शेर को लेकर प्रोजेक्ट लायन की शुरुआत की गई थी, गुजरात में। उसके बाद मगरमच्छ के लिए, हाथी के लिए और अन्य पक्षियों के लिए सभी प्राणियों के लिए ऐसे संरक्षण की परियोजना की शुरुआत की गई। पर प्रोजेक्ट लायन 1972 और प्रोजेक्ट टाइगर 1973, इनसे शुरुआत हुई और इसका एक नतीजा है कि आज हमारे जो घने जंगल बचे हैं, ये संरक्षण परियोजनाओं के कारण ही बचे हैं और आज ये खतरे में हैं, क्योंकि मोदी सरकार चाहती है कि इन कानूनों में उदारीकरण हो, इन कानूनों को कमजोर किया जाए ताकि जो डीग्रेडेड फॉरेस्ट हैं, ज्यादातर बंजर जो जंगल-जमीन है, उसका निजीकरण हो, कंपनियों को दिया जाए और खासतौर से जो आदिवासी हैं और जो जंगल के इलाके में रहते हैं, उनका जो कानूनी हक बनता है, उसको पूरे तरीके से उनको नहीं दिया जाए। जो कानून कहता है, उनका होना चाहिए, अभी जो संशोधन लाए गए हैं नियमों में, जो खत स्पष्ट करता है और जो अभी आने वाले संशोधन हैं, अधिनियम हैं, उसका नतीजा मैं समझता हूं हमारे जंगलों पर, हमारे जीव जंतुओं पर, वन्य जीव पर इसका बहुत भारी नकारात्मक असर पड़ेगा।तो चिंता का भी क्षण है और खुशी का भी एक क्षण है। आज हम दो ऐसी उत्कृष्ट महिलाओं को याद करते हैं। एक गौरा देवी, जिन्होंने चिपको आंदोलन का नेतृत्व किया और दूसरी- इंदिरा गांधी जी, जो प्रधानमंत्री होने के नाते, जो कहती थी, वो करती थीं। वो कैमरा जीवी नहीं थी, वो कहीं फोटो के लिए कॉर्बेट नहीं गई उस दिन। पर उन्होंने जो काम किया पर्यावरण और जंगल के संरक्षण के लिए, जो कानून बनाए, पहला कानून बना हमारे देश में 1974 में, वो जल प्रदूषण से निपटने के लिए। बाद में 1980 में जंगल संरक्षण कानून, वन संरक्षण कानून बना अधिनियम बना, 1981 में वायु प्रदूषण के लिए एक कानून बनाया गया।तो अलग जो 3-4 कानून बनाए गए थे, मैं समझता हूं ये परिवर्तनकारी मील के पत्थर थे और जो इन्होंने संस्थाएं बनाई, मंत्रालयों का गठन किया गया, पर्यावरण मंत्रालय बनाए गए केन्द्र स्तर में, पर्यावरण के मंत्रालय बनाए गए, सभी राज्यों में और अगर पर्यावरण को एक केन्द्र बिंदु मिला, हमारी योजनाओं में, हमारे आर्थिक दृष्टिकोण में, मैं समझता हूं इंदिरा गांधी जी उसके लिए जिम्मेदार हैं, वो प्रेरणा हमें उनसे मिली हैं। पर जो हमें विरासत में मिला था उनसे, जो कानून है, जो संस्थाएं हैं, उनको मजबूर किया जा रहा है, जानबूझकर और हमेशा इंदिरा गांधी जी का एक ही संदेशा था कि विकास और पर्यावरण के बीच में संतुलन होना चाहिए। ये संतुलन बिगड़ा जा रहा है। इस उदारीकरण के हम बिल्कुल खिलाफ़ हैं। कानून को सख्त तरीके से लागू करना चाहिए, जो संस्थाएं हैं, उनको कमजोर नहीं करना चाहिए, उनको भी और मजबूत करना चाहिए और जो आज जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती है देश के सामने, दुनियाभर के सामने, सिर्फ बातों से ही नहीं, बल्कि हमारे जो हम काम करेंगे, हमारे जो कानून को लागू करेंगे, संस्थाओं को चलने देंगे, उसी से हमें सफलता मिलेगी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए।
फोटो दिखाते हुए जयराम रमेश ने कहा, एक-दो फोटोग्राफ हैं, मुझे मुश्किल से मिले हैं, जो आपको दिखाते हैं ये 1957 का एक फोटोग्राफ है तीन मूर्ति में, 1957 का है। वो 1970 का एक फोटोग्राफ है इंदिरा जी का और ये मेरे ख्याल में पीछे खड़े हुए हैं कुछ लोग पहचानेंगे महेन्द्र सिंह साथी, हमारे दिल्ली के महापौर हुआ करते थे। 1971 का एक फोटोग्राफ है। तो यही तीन फोटो ग्राफ हैं, जो मैंने सोचा आज के दिन निकाल कर आप सबको दिखाऊं और देश के सामने रखूं और ये खत जो राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हैं, उन्होंने पर्यावरण मंत्री को लिखा है, वो आपको हम भिजवा देंगे। एक प्रश्‍न पर कि पचासवीं सालगिरह प्रोजेक्‍ट टाइगर की है, लेकिन प्रोजक्‍ट टाइगर करते-करते आपने प्रोजेक्‍ट चीता क्‍यों नहीं किया, वो क्‍यों विलुप्‍त हो गया? जयराम रमेश ने कहा कि मैंने इस केस के बारे में कई बार लिखा भी है और मैंने पार्लियामेंट में भी कहा है। चीता आने का पहला प्रयास 1968 में हुआ, 1968 में ईरान के साथ बातचीत हुई क्‍योंकि हमें सिर्फ ईरान से लाने की संभावना थी। बलूचिस्‍तान में चीता की आबादी थी, 3-4 साल लगे, बातचीत हुई, हमारा एक डेलीगेशन भी गया, 2-3 अफसर भी गए थे पर ईरान के साथ… उसके बाद में ईरान में क्रांति आई और उसके बाद बातचीत बंद भी हो गई। तब एकमात्र स्रोत था वो सिर्फ ईरान। जब मैं पर्यावरण मंत्री बना 2009 में, मैं साउथ अफ्रीका गया, नामीबिया गया, वहां बातचीत हुई और तब से लेकर 12 साल लगें हैं। जो कूनो में अभी आए हैं चीता, उसकी बातचीत की शुरुआत 2010 में हुई थी जब मैं साउथ अफ्रीका गया था तो लंबे समय तक… क्‍योंकि अलग-अलग राय थी हमारे ही विशेषज्ञों के समुदाय में अलग राय थी। कुछ लोग कहते थे नहीं होना चाहिए, कुछ लोग कहते थे होना चाहिए, अगर होगा तो कहां होगा, इस पर बहुत बातचीत हुई, लंबी बातचीत हुई। बाद में क्‍या हुआ 2013 में ये हो सकता था पर 2013 में ये केस सुप्रीम कोर्ट चला गया, एक बार जब सुप्रीम कोर्ट चला गया तब ये मामला न्‍यायालय में लंबित हो गया। तो हकीकत ये है, इसका एक इतिहास है, अगर आपको इसमें और जानकारी जानने की जरूरत है, मैं आपको पूरी जानकारी दूंगा कहां-कहां से बातचीत हुई। मेरी तो बातचीत हुई 2010 में, पर शुरुआत 1968 में हुई थी।
एक अन्‍य प्रश्‍न पर कि वन्‍य जीव संरक्षण अधिनियम की बात हो रही है, आप कह रहे हैं कि सरकार इसे कमजोर करना चाहती है एक मजबूत कानून को, उसके पीछे क्‍या उद्देश्‍य है, सरकार का? रमेश ने कहा कि ये एक मानसिकता है उनकी कि पर्यावरण के कानून Ease of doing business के खिलाफ हैं तो इन कानूनों को कमजोर करो ताकि लोगों को ऐसा नहीं महसूस हो कि पर्यावरण के कानून से प्रोजेक्‍ट लगाने में हमारी देरी हो रही है, क्‍योंकि समय तो लगता है जो कानून कहता है। मैं आपको मिसाल देता हूं। आज का कानून कहता है, हमारे समय में जो बनाया गया था कि अगर आदिवासी इलाकों में आप कोई प्रोजेक्‍ट लगाओगे तब जो वन अधिकार अधिनियम के तहत आदिवासियों का हक बनता है, जो जंगल के इलाकों में रहते हैं उनका हक बनता है, उनका हक पूरा करने के बाद ही आप वो प्रोजेक्‍ट लगा सकते हो, पर वो नहीं हुआ। मिसाल के तौर से अडानी का पावर प्रोजेक्‍ट झारखंड में, गोड्डा में, यही तो बात है वहां, झारखंड में तो यही आदिवासी लोग और झारखंड की सरकार इसका विरोध कर रही है।क्‍योंकि आपने जो जंगल में रहते हैं उन लोगों का हक पूरा नहीं किया, कानून के तहत। तो ये जो अभी संशोधन आने वाले हैं अधिनियम में, नियमों में… देखिए एक संशोधन अधिनियम में आता है और दूसरा संशोधन नियमों में आता है, दोनों में हो रहा है। नियमों में तो हो गया है और इसी से तो आपत्ति जताई है राष्‍ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने, पर जो अधिनियम में आएगा वो अभी सेलेक्‍ट कमेटी में जाएगा पर वो तो आना… बिल्‍कुल मैं समझता हूं अगले 4-5 महीने में जरूर आएगा क्‍योंकि बहुमत उनका है, अध्‍यक्ष उनका होगा और समिति में सारे के सारे, ज्‍यादातर 80 प्रतिशत सदस्‍य बीजेपी के ही होंगे। जो-जो प्रधानमंत्री चाहेंगे, वही तो होगा। तो पहले से उनका निशाना पर्यावरण और वन संरक्षण कानून पर है, पहले से ही निगाहें उसी पर हैं क्‍योंकि कोई उद्योगपति, कोई पूंजीपति नहीं चाहता कि हम पर्यावरण के कानून, वो समझते हैं कि पर्यावरण के कानून एक बाधा है, ये नहीं समझ पाते हैं, ये नहीं पहचानते हैं कि ये जरूरी है, लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए जरूरी हैं।आज जो कानून है हमारे प्रदूषण से निपटने के लिए, जो जल प्रदूषण कंट्रोल एक्‍ट है या वायू प्रदूषण कंट्रोल एक्‍ट है जब बनाया गया था तब स्‍वास्‍थ्‍य की चिंता इतनी नहीं थी, आज तो स्‍वास्‍थ्‍य की चिंता सर्वोपरि है। तो जन स्‍वास्‍थ्‍य के नजरिये से मैं समझता हूं ये कानून जरूरी हैं और इसको आप कमजोर करेंगे तो जनस्‍वास्‍थ्‍य पर इसका नकारात्‍मक असर होगा।

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