अजीत सिन्हा / नई दिल्ली
डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि इस तानाशाही, इस निरंकुशता का चेहरा पिछले कुछ दिनों में संसद में बड़े स्पष्ट रूप से दिखा है इस सत्तारूढ़ पार्टी और इस सरकार का, जिसने बार-बार चाहे वो राहुल गांधी के स्पीच के बड़े-बड़े हिस्सों को निकालने की प्रक्रिया हो, शब्दों को निष्कासित करने की प्रक्रिया हो, एक्सपंक्शन की या वही प्रक्रिया हो मल्लिकार्जुन खरगे के वक्तव्य से या कुछ हद तक जयराम रमेश के वक्तव्य से भी और उसके बाद रजनी पाटिल के निलंबित होने की प्रक्रिया।
मैं आपको इन सबको बहुत संक्षिप्त में बताना चाहता हूं, लेकिन बात बहुत सिंपल, सरल ये है कि अब संसद में भी ये सरकार और ये सत्तारूढ़ पार्टी ये डराने की, धमकाने की, अत्याचार गणतांत्रिक नियमों के साथ, संविधान के साथ, उसूलों के साथ करने की प्रक्रिया शुरू करने में जुट गई है। वो नहीं चाहते कि संसद सहमति से चले, समन्वय से चले। वो चाहते हैं टकराव हो और टकराव से चलें। टकराव के नए-नए पहलू निकाले जा रहे हैं। आप सबने जो जनता के समक्ष अब दो-तीन दिनों से हैं, वो सभी वक्तव्य पढ़े हैं, देखे हैं, सुने हैं, जो राहुल गांधी ने दिए, खरगे ने दिए और आपके पास उनके टेक्स्ट भी हैं, सबको मालूम हैं। आप ये बताएं कि गैर-संसदीय इसमें एक शब्द है क्या? दुर्वचन वाला एक वाक्य बता दें, मान मर्दन किसी संस्था का हुआ है… वो बता दें मुझे, आपत्तिजनक या गाली-गलौज वाला शब्द कोई इस्तेमाल हुआ है… वो दिखा दें हमें। अभद्र, मानहानि वाले शब्द, क्या चीज है जिससे आपने इन शब्दों को निष्कासित करने, एक्सपंज करने वाली प्रक्रिया की? शिष्टाचार के साथ, शिष्टतापूर्वक राहुल गांधी जी और खरगे जी ने जो बोला है, वो सभी तथ्यों के आधार पर बोला है। बल्कि इतनी मजाकिया एक प्रवृत्ति दिखाई है इस सरकार ने कि प्रश्नों को भी निष्कासित करने का प्रयत्न किया गया है, प्रश्नों को भी सदन के रिकॉर्ड से हटाया गया है।
जो दोनों सदनों के अध्यक्ष होते हैं, प्रिसाइडिंग ऑफिसर हैं, वो हमारे संविधान के इस अंग के रक्षक हैं, स्तंभ हैं, संरक्षक हैं और सबसे पहले संरक्षक माने जाते हैं, स्वतंत्र, खुले रूप से अपनी बात रखने के सिद्धांत का पालन करने के लिए। ये एक मौलिक स्तंभ होना चाहिए ताकि हमारे गणतंत्र का कि हम स्वतंत्र रूप से निष्पक्ष, निडर रूप से, खुले रूप से अपने विचार संसद में रख सकें और उसके संरक्षक ये लोग हैं, ये अध्यक्ष हैं। क्योंकि संसद हमारे गणतंत्र का मंदिर है। उनके कवच के बिना, उनके संरक्षण के बिना, उनकी सुरक्षा के बिना ये स्वस्थ संसदीय विचार-विमर्श कैसे होगा? डिबेट खत्म हो जाएगी। स्वतंत्र बोलना, जो हमारे संविधान की नींव है, वो खत्म हो जाएगा हमारे संसद के अंदर। हम सबको खड़े होकर इसको बचाना है और अगर आप स्वतंत्र, खुला, निडर, पारदर्शी विचार-विमर्श नहीं अलाउ करेंगे संसद के अंदर तो कहाँ आपकी गणतंत्र प्रणाली बचेगी? वो अपरिवर्तनीय तरीके से खतरे में पड़ जाएगी।
आखिर संसद को देश का सबसे व्यापक, सबसे बड़ा गणतांत्रिक जांच का आयोग माना गया है, इससे बड़ा आयोग कहीं नहीं है। वो अपना काम कैसे करेगा अगर आप उसका गला घोट देंगे इस प्रकार के नियमों द्वारा, जिसमें आपने शब्दों का निष्कासन किया, इतने सारे वाक्यों का, जिनका एक्सपंक्शन के नियम से कोई सरोकार तक नहीं है। अगर आप उठाकर पढ़ें रूल 380 लोकसभा में और यही रूल है राज्यसभा में तो जितने मैंने शब्द कहे आपको अभद्र, मानहानि, गाली-गलौज, असंसदीय, एक शब्द भी बता दें, उसके अलावा अन्य शब्दों पर आप रूल 380 को लागू नहीं कर सकते। तो फिर कैसे किया आपने निष्कासन इन शब्दों का और इसका सिर्फ एक कारण है, सरकार का प्रेशर, दबाव, दुष्प्रभाव, ये नियंत्रण और कमांड फ्रीक सरकार है, जो हर चीज पर नियंत्रण करना चाहती है और अब ये विधायिका में भी यही कर रहे हैं।
10 तारीख को इसका एक और नया उदाहरण मिला आपको, एक और नया अभूतपूर्व उदाहरण, ऐसी ऊंचाइयां हैं इस अभूतपूर्व उदाहरण में है, लेकिन दुखद मिसाल बनेगा ये भविष्य के लिए। किसका – तानाशाही का और निरंकुशता का और इसके कारण सामूहिक रूप से जो विपक्ष का राजनीतिक स्पेक्ट्रम है, वो सदन से बाहर चले गए थे 10 तारीख को। श्रीमती रजनी पाटिल एक 15 मिनट की सर्जिकल स्ट्राइक जिस पर सरकार बहुत शौक से बात करती है… उसके अंतर्गत निलंबित हुईं। आरोप है एक वीडियो रिकॉर्डिंग के विषय में- पहली बात, कोई उनको कारण बताओ नोटिस, कोई प्रक्रिया, कोई अवसर नहीं दिया गया।
दूसरी बात, अगर आप रूल 257 पढ़ें, जिसके अंतर्गत ये किया गया, तो लागू ही नहीं हो सकता। उसमें बड़ा साफ लिखा है कि ये इसके लिए हो सकते हैं निलंबित अगर… और मैं कोट कर रहा हूं… ‘persistent and wilful’ बार-बार और जानबूझकर आप अगर हाउस को चलने ना दें या ऐसा वातावरण पैदा करें कि माननीय अध्यक्ष हाउस को चला ना सकें। अभी तक श्रीमती पाटिल ने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि उनको कोई अवसर नहीं मिला। लेकिन ये मान भी लिया जाए कि किसी ने वीडियो बनाया, जो कि अभी किसी रूप से माना नहीं गया है, तो भी वो ‘persistent and wilful’ ऑब्स्ट्रक्शन कहाँ हो सकता है? जानबूझकर बार-बार… परसिस्टेंट !
इसलिए तीसरा पहलू कि अगर सब कुछ मान भी लिया जाए तो ये पहली बार की गलती है जिसमें कि हमेशा से चेतावनी ज्यादा से ज्यादा, अगर ये हुआ है, दी जाती है… ना कि निलंबन।
चौथा, इसमें जो सबसे बड़ा मूल सिद्धांत होता है कानून का, जिसको प्राकृतिक न्याय कहते हैं, नेचुरल जस्टिस, उसका तो पूरी तरह से उल्लंघन हुआ है। जांच आपने कहा कि हम करेंगे, उससे पहले निलंबन कर दिया। जांच शुरू हुई, उससे पहले निलंबन कर दिया। नोटिस देने से पहले निलंबन कर दिया। जांच पूरी नहीं हुई, उससे पहले निलंबन कर दिया। तो जो भी आम संतुलन या संतुलित प्रक्रिया के नियम हैं, उनको आपने बाहर फेंक दिया खिड़की के।
पांचवां, प्रधानमंत्री लगभग 90 मिनट या 75 मिनट से ज्यादा बोले। उनकी स्पीच में कोई ऐसा व्यवधान पैदा नहीं हुआ, नहीं तो बोल नहीं पाते 90 मिनट तक, जिससे रूल 257 लागू होता कि ऑब्स्ट्रक्शन ऐसा हो कि हाउस चल ना पाए…. तो इतना लंबा वक्तव्य कहाँ से आता, भाषण कहाँ से आता?
छठा, ऐसे कई और उदाहरण हैं पुराने, बीते हुए समय के आज की सत्तारूढ़ पार्टी के मेंबरान द्वारा। ज्यादा से ज्यादा उसमें चेतावनी हुई है या उसमें कोई एक्शन हुआ ही नहीं है। इस प्रकार से किसी को ह्यूमिलिएट करना बार-बार उनका नाम लेकर और खड़ा करना कटघरे में, संसद में और फिर निलंबित कर देना बिना किसी प्रक्रिया के…. ये असंगत है, अति है और सिर्फ पक्षपात से, सरकार के दबाव से किया गया है।
हम ये कहना चाहते हैं कि अध्यक्ष महोदय को इस सरकार के अनुरोध को नहीं मानना चाहिए था, जो कि एकतरफा है, पक्षपाती है और सभी गणतांत्रिक नियमों के विरुद्ध है।
हम ये भी कहेंगे आठवें पहलू में कि अगर कोई भी आंख बंद करके, पट्टी बांधकर भी देखने का प्रयत्न कर ले संसद टीवी उस दिन का, तो आप देखेंगे पक्षपात की कितनी बड़ी ऊंचाइयां उस दिन आई हैं। ट्रेजरी बेंचेंज़ और विपक्ष के बीच में कोई अनुपात ही नहीं है कवरेज का। एक फ़्रैक्शन भी, एक छोटे से छोटा हिस्सा भी विपक्ष का नहीं दिखाया गया है, अगर तुलनात्मक रूप से आप देखें माननीय प्रधानमंत्री के भाषण के समय संसद टीवी का कवरेज … और संसद टीवी इस बरगलाने वाली प्रक्रिया में है जैसे कि वो सरकारी विभाग है या प्रवक्ता है सरकार का, ना कि संसद का एक चैनल। तो आप समझ सकते हैं कि गणतांत्रिक, लोकतांत्रिक संतुलन कहाँ चला गया है। पक्षपात सबसे बड़़ा आज सिद्धांत बन गया है। हम मानते हैं कि ऐसा जो हुआ है पक्षपात, असंवैधानिक, गैर-गणतांत्रिक, गैर-संसदीय और जो एक प्रकार से विधायिका की पूरी प्रोसीडिंग को नीचे ले आया है, ये सामूहिक रूप से भर्त्सना योग्य है और हम समझते हैं कि ये एक ऐसी चीज है कि उस दिन तो हम बाहर आए ही हैं और अब एक दिन और बचा है संसद का, कल सुबह मीटिंग है, आगे के लिए क्या किया जाएगा, उसका निर्णय कल सुबह होगा।
एक प्रश्न पर कि क्या आप लोग रजनी पाटिल का जो सस्पेंशन है, जब तक सरकार वो वापस नहीं लेती, तब तक संसद नहीं चलने देंगे? डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि – अभी मैंने कहा न, अंत में यही तो कहा कि मैं सबके लिए तो नहीं बोल सकता, ये सामूहिक रिएक्शन है, हर पार्टी इसमें शामिल है तो मेरे लिए गलत होगा कि आपके उत्तर में मैं अपनी पार्टी का एक मत थोप दूं। आप निश्चिंत रहें कि कल सुबह इस पर निर्णय होगा, लेकिन हम सब एक हैं इसमें। हमारे मूल्य, हमारी सोच और हमारी भर्त्सना सामूहिक है। सभी विपक्षी दलों की बैठक से संबंधित एक अन्य प्रश्न के उत्तर में डॉ० सिंघवी ने कहा कि बैठक के बाद ही बोलेगी कांग्रेस, उस बैठक का कांग्रेस बहुत अहम हिस्सा है। कांग्रेस पार्टी और अन्य दलों को संसद में न बोले दे जाने के एक अन्य प्रश्न के उत्तर में डॉ० सिंघवी ने कहा कि आपको इतना लंबा प्रश्न पूछने की आवश्यकता नहीं है, हमारी स्ट्रेटजी तो कल होने वाली है फाइनलाइज औरों के साथ। अगर मैं उनसे मिलने के पहले अपनी स्ट्रेटजी आपको बता दूंगा तो मीटिंग सभी पार्टियों की यहीं हो जाएगी न फिर तो, कल सुबह यही तो स्ट्रेटजी का खुलासा होगा। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अब्दुल नजीर को राज्यपाल बनाए जाने से संबंधित एक प्रश्न के उत्तर में डॉ० सिंघवी ने कहा कि इसके दो या तीन मैं संक्षेप में उत्तर देना चाहता हूं। पहले तो मैं “आपकी कथनी, आपकी जुबानी” सुनाना चाहता हूं, आप से मेरा मतलब है सत्तारूढ़ पार्टी… बीजेपी सरकार। 5 सितंबर, 2013 को… और कोट कर रहा हूं… माननीय जेटली साहब ने, जो अब नहीं रहे, कहा था ‘The desire of a post-retirement job influences pre-retirement judgments. It is a threat to the independence of the judiciary.’ तो ये मैंने जैसा कहा कि “आपकी कथनी, आपकी जुबानी”।
दूसरा – ये कोई इसका उत्तर नहीं कि पहले भी हुआ है, बिल्कुल हुआ है, लेकिन हम मानते हैं कि अब काफी समय से और विशेष रूप से जिस निरंतरता से और जितनी जल्दी से आज-कल हो रहा है, वो सैद्धांतिक रूप से गलत है, ये नहीं होना चाहिए और हम इसका विरोध बिल्कुल करते हैं सिद्धांत पर। मैं किसी व्यक्ति विशेष का विरोध नहीं कर रहा हूं, मैं उनको खुद भी जानता हूं, उनके सामने पेश हुआ हूं, बड़े अच्छे व्यक्ति हैं, अच्छे रहे हैं कैरियर में, कर्नाटक से आए हैं, उनके बारे में बात नहीं हो रही है, एक सिद्धांत की बात हो रही है। जैसा कि कहा गया है ‘The desire of a post-retirement job influences pre-retirement judgments. It is a threat to the independence of the judiciary.’ तो सैद्धांतिक रूप से, निश्चित रूप से हम इसका विरोध करते हैं और ये आपने कहा था, बार-बार कहा था, सदन में कहा था, सदन के बाहर कहा था तो उसका पालन करने के लिए अब आपका ये उत्तर नहीं हो सकता कि पहले भी हुआ था। अभी हमने हाल ही में और इसके उदाहरण देखे, और अब ये जैसे कोई परम्परा बनाई जा रही है तो ये बिल्कुल गलत है।