अजीत सिन्हा / नई दिल्ली
डॉ अभिषेक मनु सिंघवी, संसद सदस्य, राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं सीडबल्यूसी सदस्य द्वारा दिया गया वक्तव्य:न्यायपालिका के प्रति मोदी सरकार के रवैये से तीन “Is” (आई) की बू आती है: प्रभाव (Influence), हस्तक्षेप (Interference) और डराना- धमकाना (Intimidation)। इसमें कोई रहस्य की बात नहीं है कि नियंत्रण के प्रति सनकी, सूक्ष्म-प्रबंधन और डोजियर-प्रेमी यह सरकार निम्नलिखित हथकंडो से न्यायपालिका को अपने तरीक से चलाने का प्रयास कर रही है:
• इसने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायिक नियुक्तियों के प्रस्तावों में अत्यधिक और चुनिंदा ढंग से देरी की है, जिसमें न्यायमूर्ति अकील कुरैशी, ऐसे कई नामों में से एक हैं;
• इसने मनमाने ढंग से और चुनिंदा रूप से अनुमोदित न्यायिक नियुक्तियों की सूचियों को उच्च न्यायपालिका में इस ढंग से अलग-अलग कर दिया है ताकि कुछ को मूल सामान्य सूची में से जल्दी नियुक्त करने की अनुमति मिल सके, जबकि दूसरों की नियुक्ति में विलंब हो सके, जिसके परिणामस्वरुप उनकी सापेक्ष वरिष्ठता अपरिवर्तनीय रूप से नीचे चली जाए। एक प्रमुख उच्च न्यायालय में हाल ही में ऐसे एक से अधिक उदाहरण देखे गए हैं;
• जजों के बारे में परोक्ष रुप से आक्षेप लगाने के लिए सरकारी दस्तावेजों का दुरूपयोग किया गया, ताकि न्यायपालिका में भय, घबराहट, चिंता और दुविधा का माहौल पैदा किया जा सके;
• न्यायिक कुलिजियटो पर हावी होने का प्रयास किया है ताकि ऐसे न्यायिक अधिकारियों के दंडात्मक रुप से स्थानान्तरण किए जा सकें, जिन्हें सत्तारूढ़ व्यवस्था के लिए असुविधाजनक माना जाता है;
• इसने अपने संकीर्ण पक्षपातपूर्ण और वैचारिक हितों के संरक्षण के लिए सामान्य रूप से न्यायाधीशों और न्यायपालिका के साथ और कानूनी प्रक्रिया के साथ, जब भी आवश्यक समझा, अवैध रुप से और गलत तरीके से हस्तक्षेप करने का प्रयास किया है; तथा
• इसने वफादारी, विचारधारा और राजनीतिक प्रतिबद्धता के अनुमोदनहीन परीक्षणों पर अपने वैचारिक साथियों द्वारा जांचे- परखे गए न्यायिक कर्मियों को प्रमुख पदों पर स्थापित करने का प्रयास किया है।
हस्तक्षेप
जोड़-तोड़ की रणनीति की इस लंबी सूची में, कर्नाटक से न्यायपालिका में हस्तक्षेप का एक स्पष्ट उदाहरण सामने आता है। कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से कहा है कि:
“एक वर्तमान न्यायाधीश ने मुझे बताया कि” उन्हें दिल्ली से एक कॉल आया था (नाम का खुलासा नहीं किया गया है)। उन्होंने बताया कि दिल्ली के व्यक्ति ने मेरे बारे में पूछा- मैंने उनसे कहा कि मैं किसी पार्टी से संबद्ध नहीं हूं”।
“उन्होंने कहा कि एडीजीपी उत्तर भारत से हैं और वह शक्तिशाली व्यक्ति हैं,” उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने आगे कहा, एक अन्य न्यायाधीश के स्थानांतरण के बारे में वर्तमान न्यायाधीश द्वारा उल्लेख भी किया गया था।
न्यायमूर्ति संदेश ने यह भी कहा कि उन्होंने संबंधित अधिकारियों को कथित धमकी के बारे में सूचना दी थी। उन्होंने कहा कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को विपरीत रुप से प्रभावित करता है और न्याय पालिका में और न्याय व्यवस्था में हस्तक्षेप है।
डराना-धमकाना
जब सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने भाजपा प्रवक्ता के लापरवाह आचरण और अहंकार के बारे में गंभीर और प्रासंगिक टिप्पणियां की, तो हमने न्यायपालिका पर तीन तरफा हमला देखा, जो सत्तारूढ़ व्यवस्था का एक सर्व-परिचित उपकरण बन गया है। (1) असभ्य और परिचय विहीन ट्रोल्स ने फर्जी खबरें और प्रचार फैलाया, (2) तथाकथित “बुद्धिजीवियों” द्वारा एक सुनियोजित पत्र भेजा गया और (3) इसके साथ मीडिया के कुछ वर्गों द्वारा एकतरफा रिपोर्टिंग की गई।
विद्वान न्याय पीठ के सामयिक, न्यायायिक हस्तक्षेप के प्रति अधिवक्ता संघ और विशाल मूक बहुमत के समर्थन में स्थिति को और खराब होने से बचा लिया। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय को डराने-धमकाने का प्रयास करके, इन छद्म कलाकारों ने अनजाने में हिंसा के अपराधियों और लाभार्थियों को बेनकाब कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति पारदीवाला को हाल ही में यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा: “हमारे न्यायाधीशों द्वारा लिए गए निर्णय के परिणामस्वरुप उन पर हो रहे हमलों से एक खतरनाक परिदृश्य पैदा होगा, जहां न्यायाधीशों को इस बात पर अधिक ध्यान देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा कि मीडिया क्या सोचता है, बजाय इसके कि कानून इस संबंध में क्या कहता है। यह विचारधारा अदालतों के सम्मान की पवित्रता की अनदेखी करते हुए कानून के शासन को हाशिए पर ढकेलती है।”
ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा ने जजों को डराने के लिए अपने गुंडों को दुस्साहस, अधिकार और लापरवाह धृष्टता के साथ सशक्त बनाया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के मंत्री श्री अर्जुन राम मेघवाल ने 2016 में लोकसभा में राज्य के अन्य अंगों के खिलाफ न्यायपालिका द्वारा “की जा रही टिप्पणीयों” को रोकने के लिए जोरदार रुप से आवाज उठाई थी।
प्रभाव
एक फैक्ट-चेकर को कैसे जेल हुई, इसकी कहानी को पूरा देश देख रहा है। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि कैसे अपने कार्यालयों के इतिहास में पहली बार वरिष्ठ कानून अधिकारियों ने अपनी प्रतिभा का प्रभावी ढंग से उन लोगों के बचाव में इस्तेमाल किया, जिनके अवैध आचरण को फैक्ट-चेकर द्वारा उजागर किया गया था। उन्होंने उन आधारों पर ज़मानत का घोर विरोध किया जो कानून से कोसों दूर थे। उदाहरण के लिए, इस्तेमाल किए गए तर्कों में से एक यह था कि एक तथाकथिक संत के नफरत भरे भाषणों को उजागर करने से अनुयायियों की भावनाएं आहत हुई थीं। अदालत के सवालों का जवाब देने की अपेक्षा, एक अन्य तर्क में यह अन्तर्निहित था, बिना किसी विवरण के कि पर्दे के पीछे कुछ साजिश चल रही है। विडंबना यह है कि अधिकारियों द्वारा इस तरह के छोटे-मोटे और असंवैधानिक दावे केवल उन्हें शर्मिंदा करते हुए मामले की ओर अधिक ध्यान आकर्षित करने का काम करते हैं।
10 जुलाई 2022 को एक अन्य घटनाक्रम में, औरंगाबाद में बॉम्बे उच्च न्यायालय के एडवोकेट्स एसोसिएशन ने केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू को एक पत्र द्वारा बॉम्बे उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी पर आपत्ति जताई थी। प्रतिनिधित्व ने प्रतिवेदन में उच्च न्यायालय के सभी बेंचों के बार एसोसिएशन को आह्वान किया कि जब तक मोदी सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों पर अविलंब कार्रवाई नहीं करती, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी के खिलाफ विरोध जारी रहेगा। पत्र में विशेष रूप से उन नौ वकीलों के नामों पर प्रकाश डाला गया, जिनकी न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने फरवरी 2022 में की थी, लेकिन उन्हें अभी तक मंजूरी नहीं मिली है।
अंत में, जमानत के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के 11 जुलाई 2022 के फैसले को रेखांकित करने की आवश्यकता है। हमने पिछले सात वर्षों में, तुच्छ आधारों पर घोर कार्यकारी कार्रवाई देखी है, जिसमें आमतौर पर राजद्रोह, यूएपीए आदि जैसे अनुपयुक्त प्रावधानों को लागू किया जाता है। इस संबंध में केंद्र और कई राज्यों में सत्तारूढ़ दल की सरकारें सबसे अधिक दोषी रही हैं। अक्सर वे उन कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग के बारे में पूरी तरह से अवगत होते हैं, जिसमें वे संलिप्त होते हैं लेकिन समान रूप से इस सिद्धांत को लागू करते हैं कि प्रक्रिया ही सजा है और अंतिम परिणाम की उनको परवाह नहीं होती। जमानत देने में अदालतों की ढिलाई या हिचकिचाहट समस्या को और गंभीर बना देती है।
इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट टिप्पणी के जमानत के मामलों को निपटाने में ढिलाई, या जमानत देने में कोई दुविधा या रुकावट, भारत को “एक पुलिस राज्य की तरह” बनाती है। कांग्रेस पार्टी का मानना है कि यह शीर्ष अदालत से समयानुकुल मार्गदर्शन है, विशेषकर ऐसे समय में जब सत्तारूढ़ सरकार भय और बलात् रुप से शासन करना चाहती है। इससे यह तेजी से स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा तीन ‘एस’ (3S) को लागू करने की होड़ में है: भाजपा न्यायापालिका के अंतर्ध्वंस (sabotage), गुलाम बनाने (Subjugate) और विनाश (Subvert) पर आमादा है।
कांग्रेस पार्टी चाहती है कि निकट भविष्य में उपयुक्त विधायी अधिनियमों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों के यथासंभव अधिकाधिक अक्षरशः और भावनात्मक समायोजन का उपयोग करते हुए विधायी अधिनियमों को लागू किया जाए। यह संविधान के अनुसार और उचित विधायी प्रक्रिया के अधीन कानून की उचित प्रक्रिया का उपयोग करके किया जाएगा।